कजली मेला महोबा

कजली मेला महोबा का इतिहास: बुंदेलखंड की वीरता, नारीशक्ति और लोक संस्कृति की जीवंत कहानी

कजली मेला महोबा: बुंदेलखंड की आत्मा और परंपरा का महान पर्व

बुंदेलखंड की ज़मीं पर जहां शौर्य और संस्कृति का संगम होता है, वहाँ हर वर्ष रक्षाबंधन के बाद महोबा में कजली मेला लगता है। यह मेला सिर्फ तीन दिनों का उत्सव नहीं है, बल्कि यह बुंदेलखंड की वीरता, नारीशक्ति और लोक आत्मा का जश्न है। कजली मेला महोबा का इतिहास गहराई से जुड़ा हुआ है राजा परमाल, रानी मल्हना, राजकुमारी चंद्रावल, और बुंदेलखंड के महान योद्धा आल्हा-ऊदल की वीरताओं से।

इस लेख में हम आपको कजली मेले का पूरा इतिहास, उसकी परंपराएं, लोककथाएं, मुख्य पात्र, और आज का महात्म्य विस्तार से सरल भाषा में बताएंगे, जिससे आप इसे ध्यान से पढ़ेंगे और शरीक भी होना चाहेंगे।

महोबा की धरती और चंदेल वंश: राजा परमाल की गाथा

महोबा कोई सामान्य जगह नहीं, ये बुंदेलखंड का वह हिस्सा है जहां सदियों से वीरता, इतिहास और सांस्कृतिक विरासत फली-फूली है। यहाँ का सबसे बड़ा शासक राजा परमाल थे, जो चंदेल राजवंश के अंतिम महान शासक थे। राजा परमाल का शासनकाल लगभग 1165 से 1203 ई. तक रहा। उन्होंने कीरत सागर तालाब, सूर्य मंदिर और महोबा का किला बनवाकर इसे समृद्धि और मजबूती दी।

उनकी पत्नी रानी मल्हना, जो कि नारीशक्ति और बहादुरी की मूरत थीं, पूरी राजसी गरिमा के साथ अपने सैनिकों को प्रोत्साहित करती थीं। उनकी पुत्री राजकुमारी चंद्रावल, अपने सौंदर्य और साहस के लिए प्रसिद्ध थीं। महोबा में उस समय आल्हा और ऊदल जैसे वीर योद्धा भी थे, जो चंदेल सेना के सेनापति थे और अपनी बहादुरी के लिए पूरे बुंदेलखंड में जाने जाते थे।

पृथ्वीराज चौहान का महोबा पर आक्रमण: युद्ध की शुरुआत

12वीं सदी के अंत में, दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर आक्रमण का फैसला किया। उनका मकसद केवल महोबा पर कब्जा करना नहीं था बल्कि महोबा की सुंदर राजकुमारी चंद्रावल से अपने पुत्र का विवाह कर सत्ता का पुलिंधा मजबूत करना था।

इस घटना के दौरान, रक्षाबंधन के बाद की एक पावन परंपरा के अनुसार, राजकुमारी चंद्रावल और रानी मल्हना भुजरिया विसर्जन के लिए कीरत सागर के पास जा रही थीं। भुजरिया विसर्जन का मतलब होता है जौ के पौधों को पानी में डालकर हरियाली और समृद्धि का आशीर्वाद लेना। तभी पृथ्वीराज की सेना ने अचानक हमला बोल दिया।

राजमहल में अफरा-तफरी मची और उसी समय एक बड़ा युद्ध अपने रंग में रंग गया।

बहादुर रानी मल्हना और उनकी नारीशक्ति की कहानी

जब युद्ध शुरू हुआ, तो महोबा की रानी मल्हना ने पुरुषों की तरह तलवार नहीं उठाई, बल्कि वह मातृत्व और मातृत्व की शक्ति लेकर युद्ध की भूमि पर उतरीं। उन्होंने अन्य महिलाओं की टोली बनाई और अपने हथियार लेकर दुश्मनों के खिलाफ मोर्चा संभाला।

लोक गीतों में आज भी इस बहादुरी का वर्णन मिलता है:

“कजली की छांव में तलवारें नाचीं थीं,
मल्हना रानी की आंखों में आग भरी थी।”

ऐसे क्षण बुंदेलखंड की हर महिला के लिए एक प्रेरणा हैं, जिन्होंने संकट में कदम पीछे नहीं हटाये।

आल्हा-ऊदल की बहादुरी: युद्ध का निर्णायक पल

आल्हा और ऊदल पहले ही महोबा से निष्कासित किए जा चुके थे, लेकिन जब उन्हें महोबा पर हमला होने की खबर मिली, वे अपने साथी मलखान, ब्रह्मजोत और अन्य योद्धाओं के साथ युद्धभूमि पर लौट आये।

एक भीषण युद्ध हुआ जिसमें राजा परमाल के पुत्र अभई वीरगति को प्राप्त हुए। हालांकि, अंततः आल्हा-ऊदल की वीर सेना ने पृथ्वीराज चौहान की फौज को परास्त कर महोबा की रक्षा की।

यह युद्ध महोबा के गहने की तरह है जो बुंदेलखंड की वीरता और स्वाभिमान की कहानी कहता है।

भुजरिया विसर्जन और कजली मेला की स्थापना

युद्ध के कारण उस वर्ष भुजरिया विसर्जन नहीं हो पाया। महिलाओं ने वचन लिया कि वे हर साल इस दिन विजय, नारीशक्ति और हरियाली के प्रतीक के रूप में ‘कजली मेला’ मनाएंगी।

भुजरिया, यानी जौ के पौधे, जिन्हें महिलाएं रक्षाबंधन से पहले बोती हैं और तीन दिनों तक उनकी रक्षा करती हैं। फिर मेले के दिन सिर पर सजा कर कीरत सागर तालाब में विसर्जित करती हैं।

इस प्रकार यह परंपरा बुंदेलखंड की नारी शक्ति, प्रकृति और सांस्कृतिक धरोहर का अनमोल हिस्सा बन गई।

कजली मेले के रंग और चहल-पहल: आज का उत्सव

आज कजली मेला महोबा का सबसे बड़ा सांस्कृतिक त्योहार है। इस मेले में हर साल हजारों की संख्या में लोग जुटते हैं।

  • यहाँ शोभा यात्राएं निकाली जाती हैं जिसमें आल्हा ऊदल, रानी मल्हना, राजकुमारी चंद्रावल, राजा परमाल और पृथ्वीराज चौहान के पात्रों की झांकियाँ होती हैं।

  • बुंदेली लोकसंस्कृति के रंग नृत्य, जैसे कि फाग, करमा, धमार देखने को मिलते हैं।

  • मेले में लोकगीतों की गूंज और आल्हा गायन प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं जो वीरता और लोक संस्कृति को जीवित रखती हैं।

  • अस्थायी बाजारों में पारंपरिक हस्तशिल्प, पान, मिठाइयाँ, खिलौने और देसी वस्तुएं भी मिलती हैं जिसका आनंद बच्चे-बुजुर्ग सब लेते हैं।

  • सभी समुदायों के लोग एक साथ इस मेले में भाग लेते हैं जिससे सामाजिक सद्भाव और मेलजोल बनता है।

आधुनिक युग में कजली मेला: ट्रेडिशन और टेक्नोलॉजी का मेल

आज कजली मेला न केवल लोक उत्सव है, बल्कि पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र बन गया है। जिला प्रशासन और उत्तरप्रदेश पर्यटन विभाग इस मेले को बढ़ावा दे रहे हैं।

डिजिटल मीडिया द्वारा मेले को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी फैलाया जा रहा है। स्वास्थ्य शिविर, महिला स्वयं सहायता समूह के स्टॉल, सरकारी योजनाओं की जानकारी भी चिंता में शामिल है।

यह आधुनिकता और परंपरा का अद्भुत समागम है।

निष्कर्ष: कजली मेला – जुड़ी हुई गाथा, जीवित परंपरा

कजली मेला महोबा का वो सांस्कृतिक पर्व है जिसमें इतिहास, वीरता, नारीशक्ति, और लोक संस्कृति का विलक्षण संगम है। यह मेला बुंदेलखंड और पूरे भारत के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

यहां हर वर्ष भुजरिया सिर पर सजती है, हर्षोल्लास का माहौल बनता है और बुंदेलखंड की मिट्टी फिर से वीरता और समृद्धि के गीत गाती है।

उपयोग में लाये गए स्रोत

इस लेख के द्वारा आप न केवल कजली मेले का इतिहास जानेंगे, बल्कि बुंदेलखंड के गौरव, लोक संस्कृति, और नारीशक्ति की जीवंत परंपरा से भी परिचित होंगे।

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